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दलित समुदाय के भोजन और संस्कृति की अनकही कहानी, Dalit Kitchens of Marathwada

Dalit Kitchens of Marathwada

Dalit Kitchens of Marathwada: हमारा भोजन हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि भोजन का हमारी सामाजिक संरचना और पहचान से कितना गहरा संबंध होता है? महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र के दलित समुदाय का ऐसा ही एक अनसुना पहलू सामने लाती है शाहू पटोले की किताब “दलित किचेंस ऑफ मराठवाड़ा”. यह किताब न केवल भोजन की बात करती है, बल्कि जाती-व्यवस्था और सामाजिक भेदभाव के बीच उसके महत्व को समझाती है।

यह ब्लॉग आपको उस समय, स्वाद, और परंपराओं की ओर ले जाएगा जब दलित समुदाय को अपने भोजन के लिए भी संघर्ष करना पड़ता था। आइए जानते हैं, उस युग की कहानियां, जहां सामाजिक हायरार्की यहां तक कि रसोई से भी जुड़ी हुई थी।

Dalit Kitchens of Marathwada

मराठवाड़ा और इसकी सामाजिक संरचना

मराठवाड़ा, जो कभी हैदराबाद स्टेट का हिस्सा था, एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर वाला क्षेत्र है। 1956 में डॉ. भीमराव अंबेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद भी यहां जाति प्रथा के प्रभाव ने दलित समुदाय की स्थिति को अधिक चुनौतीपूर्ण बना दिया।

मराठवाड़ा के दलित चार प्रमुख जातियों में विभाजित हैं – महार, मांग, ढोर और चमार। इसमें भी हायरार्की इतनी गहरी थी कि महार मांग को और मांग ढोर-चमार को अस्पृश्य मानते थे।

गांवों में ये भेदभाव भोजन तक भी सीमित नहीं था। ऊपरी जातियां अधनिचली जातियों के साथ भोजन नहीं करती थीं। महिलाएं इस भेदभाव को और अधिक महसूस करती थीं। हालाँकि, मंदिरों में प्रवेश जैसी पुरानी वर्जनाएं समाप्त हो सकती थीं लेकिन, दिलों और रसोई में यह भेदभाव बना रहा।

भोजन और जाति के बीच का संघर्ष

दलित समुदाय का भोजन न केवल उनकी आजीविका के बारे में बताता है, बल्कि उस समय की उनकी सामाजिक स्थिति को भी दर्शाता है।

बीफ और सामाजिक दबाव

गांवों में खेती न होने के कारण दलित समुदाय के पास भोजन के सीमित विकल्प थे। बीफ, जो अक्सर मरे हुए जानवरों का होता था, इन समुदायों का मुख्य भोजन था। इसे सुखाकर बारिश के दिनों के लिए सहेज कर रखा जाता था। इसे ‘चानी’ कहा जाता था और इसे पूरे परिवार के लिए लंबे समय तक उपयोग किया जाता था।

इसके अलावा, गांवों में भूख मिटाने के लिए जंगली सब्जियां भी खाई जाती थीं, जिन्हें अक्सर जानवर भी नहीं खाते थे।

हायरार्की और भोजन की परंपरा

भोजन में भेदभाव केवल ऊंची जातियों और दलितों तक ही सीमित नहीं था। दलित समुदाय के भीतर भी यह भेदभाव साफ दिखता था। शादी-ब्याह जैसे उत्सवों में मांग समुदाय की सुहागिन महिला का चेहरा देखना शुभ माना जाता था, लेकिन उसका बनाया भोजन खाने में लोग हिचकते थे।

इसी तरह, ऊपरी जातियों के घर में बने पुरण पोली में तेल की मात्रा अधिक रहती थी, जबकि बांडेड लेबर को दी जाने वाली पुरण पोली बिना तेल की होती थी।

त्योहार और सीमित संसाधन

त्योहारों के दौरान ही विशेष खाने की चीजें बनती थीं। सालभर में केवल 16 बार चावल बनता था। बाकी दिनों में ज्वार की रोटी खाई जाती थी। तेल और मसालों का उपयोग तो केवल खास अवसरों पर ही होता था।

करड़ तेल (सफेद सरसों से निकाला गया तेल), जो गरीबों की रसोई में आसानी से उपलब्ध था, आज उसकी कमी महसूस होती है क्योंकि यह महंगा हो गया है।

मराठवाड़ा की अनोखी रेसिपीज

शाहू पटोले ने इस किताब में परंपरागत दलित फूड से जुड़े सरल लेकिन स्वादिष्ट व्यंजनों का जिक्र किया है।

सरल लेकिन स्वादिष्ट व्यंजन

यहां कुछ विशिष्ट रेसिपीज हैं जो आपको मराठवाड़ा के पारंपरिक स्वाद की एक झलक देंगी:

  1. दाल वांग: बैंगन और दाल को मिलाकर बनाई जाने वाली यह डिश मूंगफली के पाउडर, लाल मिर्च, और नमक के साथ पकाई जाती है।
  2. कांदे च पात भाजी: हरे प्याज के पत्ते और चने की दाल से तैयार की जाने वाली हल्की सब्जी, जिसमें तेल का कोई इस्तेमाल नहीं होता।
  3. चने की सूखी सब्जी: सूखे चने को भिगोकर, मूंगफली के कूट और लाल मिर्च के साथ बनाया गया एक स्वादिष्ट व्यंजन।
  4. शिकरण: केला, दूध और चीनी के मेल से बनी एक सरल और मीठी डिश।
  5. गुड़-गेहूं का हलवा: पानी में गुड़ और गेहूं का आटा मिलाकर बनाया गया एक बेहद साधारण और स्वादिष्ट मीठा स्नैक।

महिलाओं और भोजन की जिम्मेदारी

गांवों में महिलाओं पर पूरा खाना बनाने का जिम्मा होता था। सुबह जल्दी उठकर ज्वार की रोटियां बनाना, खेतों में काम करना, और शाम को वापस आकर फिर से परिवार के लिए खाना बनाना उनका रोज़ का काम था।

आज वर्किंग महिलाओं को यह चक्र जारी महसूस होता है। तकनीक भले बदल गई हो, मिक्सर और गैस चूल्हे आ गए हों, लेकिन जिम्मेदारियों के स्वरूप में बदलाव उतना बड़ा नहीं हुआ है।

पुस्तक का महत्व

“दलित किचेंस ऑफ मराठवाड़ा” किताब केवल एक व्यंजन सूची नहीं है। यह उन पीढ़ियों का दस्तावेज़ है, जिनकी कहानियां उनके भोजन के माध्यम से जीवित रहती हैं। यह उन संघर्षों, भेदभाव और कड़वे अनुभवों को सामने लाती है जो दलित समुदाय ने झेले।

यह किताब आने वाली पीढ़ियों के लिए एक आइना है, जिसमें वे देख सकते हैं कि उनके पूर्वज क्या खाते थे और क्यों।

निष्कर्ष

दलित समुदाय का भोजन उनका संघर्ष, उनके जीवन के छिपे पहलू और उनकी सामाजिक पहचान बताने का एक माध्यम है। यह केवल रोटियां, दालें या बीफ नहीं है, यह उनके जीवन और समाज में उनकी स्थिति की कहानी है।

“दलित किचेंस ऑफ मराठवाड़ा” सिर्फ एक किताब नहीं है, यह हमारे समाज की एक भूली हुई झलक है, जिसे पढ़ा जाना चाहिए। क्या हम अपने भोजन के माध्यम से सामाजिक न्याय और समानता की ओर एक कदम बढ़ा सकते हैं?

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