Amrit Sarowar Yojana: बेंगलुरु के तालाबों को वहां के लोगों ने कैसे save किया? क्या है अमृत सरोवर योजना? Negative Impacts of Ponds Encroachments

Amrit Sarowar Yojana

Amrit Sarowar Yojana:क्या आप जानते हैं कि इस वक्त केंद्र सरकार की एक योजना चल रही है. इस योजना के तहत देश के हर जिले में 15 अगस्त 2023 तक यानी अब कुछ ही महीने रह गए हैं, देश के हर जिले में 75 तालाब बनाने हैं। जो पुराने हैं, उन्हें फिर से जिंदा करना है. जिन पर अतिक्रमण हो चुका है उनके अतिक्रमण को हटाना है और इस योजना को नाम दिया गया है अमृत सरोवर योजना।

नाम तो दिया गया अमृत सरोवर योजना। आप कहेंगे बहुत सुंदर नाम है लेकिन जिस तरह से हमने तालाबों को नष्ट किया है और अभी भी तालाब को हम बचाने का काम कर रहे हैं, क्या हम ईमानदारी से कर रहे हैं? क्या इस योजना के तहत बनने वाले तालाब सिर्फ नाम के लिए अमृत सरोवर है.

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Amrit Sarowar Yojana:बेंगलुरु के तालाबों को कैसे बचाया गया?

हम बेंगलुरु के तालाबों और झीलों का उदाहरण इसलिए ले रहे हैं क्योंकि यहाँ पर अभी भी बहुत सारे तालाब मौजूद है. आपको बता दें कि तालाब सिर्फ अपने आप में एक एंटिटी या एक चीज नहीं होती है. तालाब शहर में दूसरे तालाब से जुड़ा हुआ होता है. उसके लिए वाटर चैनल, नाले या फिर और आप सोते कह सकते हैं, उनके जरिए एक तालाब से कई तालाब जुड़े होते हैं. इस तरह के वाटर चैनल को आप ध्वस्त कर देते हैं और फिर एक तालाब को बचा कर कहते हैं कि हमने तालाब बचा लिया है.

पर हम बेंगलुरु में सबसे पहले जहाँ पहुंचे वो Sarakki Lake है और इस तालाब के बहाने हम शहरों में जो तालाबों को गायब करने की राजनीति रही है, जो उदासीनता रही है, नागरिकों के बीच और फिर से नागरिकों में तालाबों को लेकर सक्रियता आती है. उस प्रक्रिया पर हम संक्षिप्त टिप्पणी करना चाहते हैं.

जो ये Sarakki Lake है, जिसे मरा हुआ तालाब कहते थे. मरी हुई झील की उपाधि मिल गई थी और इसे बचाने के लिए बेंगलुरु शहर के नागरिकों ने अभियान शुरू किया। ये बहुत गज़ब की बात है कि इस शहर में नागरिक जो है वो अपनी तरह से अभियान शुरू करते है तालाब को बचाने का. मगर क्या उनका अभियान पूरा है. हम इसी पर बात करेंगे।

पहले हम बेंगलुरु के Puttenahalli Lake के बारे में बात करेंगे। इस झील की कहानी है कि आस-पास की जो कॉलोनियों के जो गंदे पानी थे वो इस झील में आने लगा. इसी तरह से कई झील में sewage ट्रीटमेंट का पानी गिरने लगा, जिसके कारण जिसे झील भी कहते हैं, उसे मृतप्राय घोषित कर दिया गया क्योंकि इसके अंदर मछलियां मरने लगी. बहुत सारी ऐसी घटनाएं हुई हैं, मछलियों के मरने की और आप बेंगलुरु के अखबारों को तालाब की खबरों के हिसाब से लेक की खबरों के हिसाब से सर्च करेंगे तो ऐसी बहुत सारी खबरें आपको मिलेंगी।

बेंगलुरु के Kothanur Lake में भी sewage का पानी आ गया था और हजारों मछलियां मर गई थी. जानकार कहते हैं कि हर मानसून में यही कहानी रहती है कि मछलियां मरती हैं और जब sewage का पानी, शहर का गन्दा पानी उसमें भरता है तो इस तरह की घटना होती है. एक भी ऐसा गुलाब नहीं है जिसका पानी जो है वो पीने के लायक है.

2010 में सरकी लेक को मृतप्राय घोषित कर दिया गया था. लेकिन नागरिक संगठन आगे आते है और इस झील को बचाने के लिए जुट जाते है. ये आप देख सकते हैं कि लोगों ने मिलकर इस झीलों को, तालाबों को यहाँ बचाया है. मगर इनके रख-रखाव की जो समस्या है वो बड़ी है. बचा लेने के बाद उसे फिर वापस उसी स्वरूप में कैसे बरकरार रखा जाए ये एक चुनौती भी है. मगर बहुत से लोग इस झील के किनारे जो पेड़ आप देखेंगे इन पेड़ों को यहाँ के रहने वाले स्थानीय लोगों ने गोद लिया है. कुछ पेड़ों पर उनके नाम लिखे हैं.

दक्षिण बेंगलुरु का चिंतित नागरिक इस तरह की भी पहचान के साथ इसे गोद लिया गया है. शहर के बीच इस झील को हालांकि बचा तो लिया गया है, मगर साफ पता चलता है कि ये काफी बड़ी झील रही होगी, बड़ा तालाब रहा होगा और इसके बड़े हिस्से पर अतिक्रमण किया गया है.

बेंगलुरु में जो तालाबों का निर्माण हुआ है, सदियों से और उसे जो बचा कर रखा गया है, उसमें मंदिरों की बहुत भूमिका है, मंदिरों के कारण इन तालाबों का संरक्षण किया गया. लेकिन विडंबना देखिए कि जब अतिक्रमण हुआ तो उस जगह पर अपना दावा करने के लिए या ये बात छिपाने के लिए कि यहाँ कभी तालाब था, लोगों ने मंदिर ही बना दिए और अन्य धार्मिक स्थल भी बनाए ताकि किसी को पता ना चले और कोई अतिक्रमण ना हटाए।

तो जिन मंदिरों के कारण ये तालाब बने और सदियों तक बचे रहे उन मंदिरों के कारण इनका अतिक्रमण भी हुआ और इस बात को लेकर किसी की धार्मिक आस्था आहत नहीं होती है कि हमारे मंदिरों के साथ इन तालाबों का जुड़ाव रहा है।

तो इन तालाबों के बगैर आप उन मंदिरों की कल्पना कैसे कर सकते हैं? तो उन मंदिरों को अगर बचाना है तो आप तालाब बचा लीजिए। मगर तालाब बचाने की राजनीति आपको कभी भी भावुक नहीं करेगी। क्योंकि जब इसे बचाने निकलेंगे तो अपने ही उन नेताओं के खिलाफ खड़े हो जाएंगे जो आपके लिए आजकल धर्म के रक्षक बने हुए हैं तो इसलिए तालाबों को जब आप बचाने के लिए निकलेंगे तो बहुत से अपने लोगों को, अपनी विचारधारा के लोगों को, अपनी पसंद के राजनेताओं के खिलाफ भी खड़ा होना पड़ेगा। तो क्या पानी को लेकर आप इतने ईमानदार हैं? इस हद तक जा सकते हैं? ये सवाल आप खुद से पूछिएगा।

बेंगलुरु में अनगिनत तालाब थे और आज उन तालाबों को लेकर अध्ययन भी हो रहा है, अखबारों में खबरें भी छपती हैं. बहुत तालाब तो इस धरती को त्याग भी चुके हैं, उन्हें अब कभी वापस हासिल नहीं किया जा सकता है। एक अध्ययन है, अखबारों की रिपोर्ट से ही हमने देखा कि 35% तालाबों का पानी प्रदूषित हो चुका है, उसमें मछलियां नहीं रह सकती।

कर्नाटक स्टेट पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड की रिपोर्ट है कि ऐसे 36 तालाब केएसपीसीबी बेंगलुरु में सौ से अधिक तालाबों की निगरानी करता है और एक रिपोर्ट मीडिया में यह भी मिलती है कि बेंगलुरु के विस्तार के लिए सौ से अधिक गांवों का अधिग्रहण किया गया. उन जगहों पर महंगे इलाके बनाए गए, apartment बनाया गया और आज तक उन गांवों का पानी जो है साफ नहीं होता है और इन तालाबों में छोड़ दिया जाता है.

महादेवपुरा, व्हाइटफील्ड, शाहजहांपुर, वर्थुर, बेलंदूर और कुड्डू, जैसे इलाके में. तो water supply और sewage department ने कहा है कि 2025 तक आते-आते हम केवल treat किया हुआ है यानी संशोधित पानी ही हम तालाब में डाल पाएंगे यानी अभी भी दो-तीन साल और लगेंगे।

आपने देखा होगा कि गंगा की सफाई का मुद्दा भी तो यही है कि जो गंगा नदी में नाले गिरते हैं, उन्हें कैसे साफ किया जाए? तो sewage ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए। अभी भी इलाहाबाद हाई कोर्ट में उसकी सुनवाई चल रही है। इतना राजनीतिकरण होने के बाद, हजारों करोड़ का बजट बनाने के बाद भी वो पैसा कहां गया?

इलाहाबाद हाई कोर्ट की सुनवाई को आप सुनेंगे, तो जज साहिबान चीख-चीख कर पूछ रहे हैं और सरकारी एजेंसियां एक दूसरे पर टालती हुई किसी भी मुख्य प्रश्न का ठोस जवाब, खासकर भ्रष्टाचार से संबंधित सवालों का जवाब नहीं देती है. तो इस तरह से सुनवाई के बाद एक और सुनवाई सवाल के बाद एक और सवाल में वो बहस जो है वो चल रही है. मालूम नहीं कि किस तरह का फैसला आएगा।

मगर उन सुनवाइयों के दौरान जो बात निकल कर आई है कि अभी भी गंगा में जो बहुत से ऐसे नाले हैं जिन्हें ट्रीट नहीं किया जाता है, साफ नहीं किया जाता है और गंदा पानी गिरता है और जो steppy प्लांट लगाए गए हैं वो भी अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं करते हैं।

तो यही हाल इन तालाबों का भी है कि sewage ट्रीटमेंट प्लांट कब लगेगा और कब पानी साफ करके इसमें गिरेगा और ये भी एक बात है कि आपने सीवेज ट्रीटमेंट के लिए तालाबों को ही क्यों चुना है? उसके लिए अलग व्यवस्था क्यों नहीं बनाई है? उसका पानी तालाब में ही क्यों गिरना चाहिए?

अपनी परम्पराओं में आप जाकर देखिए तो तालाब इसलिए नहीं बनाया था कि शहर का गंदा पानी, ट्रीट किया हुआ पानी उसमें गिरे। बल्कि इसलिए बनाया था कि बारिश का पानी और जमीन का पानी दोनों मिलकर वहां रहे. जिसे लोग पी सके. क्या ट्रीट किया हुआ पानी आप तालाब को फिर से पीने लायक बना सकते हैं. शायद हम अब तालाबों को लेकर वैसी विश्वसनीयता हासिल ना कर सकें।

मगर आप देखिए कि पुतनहली लेक को जिस तरह से बचाया गया है. आप जब भी बेंगलुरु आए तो इन तालाबों, झीलों के आसपास जरूर जाए और महसूस करें कि इनका होना कितना जरूरी है. अगर ये अपने रूप में बचे होते तो बेंगलुरु कितना सुंदर शहर होता। जिसके बीच कहीं छह सौ तालाब के होने की जानकारी मिलती है तो कहीं एक हजार तालाब के होने की जानकारी मिलती है.

मगर आप देखिए कि अगर ये सारे तालाब बचे होते तो ये शहर दुनिया का कितना दुर्लभ शहर होता। पानी की समस्या तो नहीं ही होती। लेकिन रहने के लिए, वातावरण के लिए लोग इन तालाबों को ही देखने के लिए आते। फिर भी ये कितनी अच्छी बात है कि इतने बड़े महानगर के बीच जहां चलने की जगह नहीं है, कुछ तालाब दिख जाते हैं, याद दिलाते हैं कि इनका होना कितना जरूरी है।

दिल्ली में आपको बताना चाहूंगा कि एक वक्त था जब 3000 से अधिक तालाब थे। वो तालाब गायब हो गए। अब वहां भी सरकार अभियान चलाने की बात करती है कि हम इन तालाबों को पुनर्जीवित करेंगे। मगर वो कब होंगे या उन्हें पुनर्जीवित करने के नाम पर किनारे घाट बना दिए जाएंगे, बिजली के लैंप लगा दिए जाएंगे। जिससे आपको सुंदर लगेगा और तालाब छोड़कर आप उन लैंपों के नीचे खड़े होकर सेल्फी बनाने लग जाएंगे। तो ये बचाना तालाब का बचाना नहीं है.

मगर आप ये देखिए कि यहाँ पर किनारे किस तरह से मिट्टी है. जो घास-फूस उग आए हैं. ये सभी तो बहुत जरूरी है, जिसमें पक्षी रह सकते हैं, पेड़ों का होना बहुत जरूरी है. तो इस पुट्टण्हल्ली लेक को देखकर लगता है कि बचाया तो गया है इसे, मगर इसे प्राकृतिक रूप में बचाया गया है। इसे सुंदर बनाने के लिए इसका कांक्रीटीकरण नहीं किया गया है।

इसमें सीमेंट, बालू इन सब चीजों का इस्तेमाल नहीं हुआ है। तो ये बहुत सुंदर है कि यहाँ के लोग, स्थानीय एजेंसियां, जिसे आप municipality कहते हैं, उन लोगों के साथ मिलकर इसे बचाया हुआ है और ये झील जो है आपको इस शहर में होने का एक मकसद देती है कि आप बेंगलुरु आए हैं तो चलिए इन तालाबों के किनारे जाएं और सिर्फ टहलकर अपनी तोंद ना पिचकाएं बल्कि तालाबों के बारे में जरा सोचिए कि इनका होना कितना जरूरी है.

अब हम आगे की बात पूरी करने के लिए वापस सरकी लेक के पास चलते हैं. सरकी झील के पास हम इसलिए आए हैं कि सरकी झील को बचाने के लिए बेंगलुरु शहर के नागरिक एकजुट होते हैं। कई तरह के संगठन बनाते हैं, कोर्ट में मुकदमा लड़ते हैं और 4 साल तक मुकदमा लड़ने के बाद हाई कोर्ट का आदेश आता है कि इस झील के किनारे जितना भी अतिक्रमण हुआ है, उसे हटाया जाए और वापस झील को पुनर्जीवित किया जाए.

क्योंकि इसका पानी ना मनुष्य के इस्तेमाल के लायक रहा, ना इसका पानी तालाब में पलने वाली मछलियों के लायक रहा, ना मछलियों को खाकर जीने वाले तालाब में चलने उड़ने, बैठने वाले पक्षियों के लिए रहा, तो बचाने का अभियान शुरू होता है.

तो सरकी लेक के जरिए हम बेंगलुरु के तालाबों के बारे में बात करना चाहते हैं। बेंगलुरु में तालाब जो हैं वो सदियों से रहे हैं और सदियों की प्रक्रिया के दौरान बने हैं. कुछ प्राकृतिक कारणों से भी बने हैं और कुछ मनुष्य ने बनाए हैं. हर तालाब का संपर्क दूसरे तालाब से रहा है और जहां भी गांव रहा है, वहां तालाब रहा है, बड़ा सा. तो इस सड़क की लेक के किनारे भी तीन गांव बसे थे, चौरासी एकड़ की झील थी.

जब राजस्व विभाग ने जब सर्वे किया तो 34 एकड़ जमीन इस झील की, उसका अतिक्रमण किया जा चुका था. बहुत सारे मंदिर बन गए थे. 60 से अधिक मकान बन गए थे. एक डेंटल कॉलेज बना दिया गया था और इन सब को तोड़ा जाता है और वापस इस झील को पुनर्जीवित करने की कोशिश की जाती है तो हमें समझना ये है कि ऐसा क्यों हुआ?

ऐसा इसलिए हुआ कि जब शहर बनने लगे तो इन तालाबों के किनारे बसे गांवों को छोड़कर दूसरे इलाकों में उनकी खेती की जमीन पर बसे। गाँव के लोगों के पास काम नहीं था, पेशा बदल गया तो वो गांव छोड़कर कहीं और चले गए। इन गांव में दूसरे राज्यों से रहने वाले लोग आकर रहने लगे। उनके लिए इस तालाब की कीमत नहीं थी क्योंकि तालाब की कीमत मूल निवासियों के लिए यही थी कि इसके जरिए वो पूजा करते थे, कर्मकांड बहुत सारे मंदिर तालाबों के किनारे बनते थे, खेती करते थे और पीने का पानी पीते थे, इस्तेमाल करते थे,

लेकिन जब शहरीकरण होता है, विकास प्राधिकरण बनता है, तो पाइप वाटर की सप्लाई होती है। तो फिर आप तालाब का इस्तेमाल छोड़ देते हैं, उसे बेकार समझने लगते हैं। धीरे-धीरे पानी सूख जाता है, शहर का नाला गिरने लगता है, जो अवैध बस्तियां बनती है, तालाबों में उनका नाले का पानी गिरने लगता है।

फिर तालाब गंदा होता तो मच्छर होने लगते हैं, मलेरिया फैलने लगता है तो आप सारी बीमारियों का जड़ इन तालाबों को समझने लगते हैं, उदासीन होते हैं. यही हुआ पचास, साठ, सत्तर के दशक में तालाबों को आप खराब और गंदा मानने लगते हैं कि यहाँ गंदगी है, बदबू है और उससे आप विमुख हो जाते हैं।

फिर उसके बाद क्या होता है, एक दूसरा दौर आता है कि पानी का संकट होता है और आपको महसूस होता है कि इस शहर में जो हजारों किस्म की चिड़िया थी वो अब है नहीं, सैकड़ों किस्म की चिड़िया नजर नहीं आती है, मछली मर रही हैं। पानी आप पी नहीं सकते हैं, दूर-दूर तक जाकर आप पानी पीने का पानी ला रहे हैं। तो ये कैसा विकास है?

तो कुछ नागरिक लोग जमा होते हैं, जो ecological reason से कारणों से, परिस्थितीय कारणों से तालाब को बचाने का अभियान शुरू करते हैं. अगर हमें खुली हवा में सांस लेना है तो तालाब होने चाहिए, झीलों को फिर से जिंदा करना पड़ेगा और वो अभियान करते हैं. तो ये बहुत अच्छी बात है कि नागरिक यहाँ पर बेंगलुरु शहर में जमा होते हैं और उन तालाबों को जो बेंगलुरु की पहचान का हिस्सा रहे उसे बचाने की कोशिश करते हैं.

लोग आते हैं क्योंकि तालाब के बगैर तो हमारी परम्पराएं या हमारा पुराना शहरी सिस्टम तो उसकी कल्पना तो आप कर नहीं सकते हैं. तो होता ये है कि मुकदमा केस मुकदमा लड़ता है. अब क्या होता है अदालतों के आदेश पर राजस्व विभाग सर्वे कराता है कि किन-किन लोगों ने कितनी-कितनी जमीनों पर अतिक्रमण किया हुआ है.

तो पता चलता है कि जो बेंगलुरु विकास प्राधिकरण है वो तालाबों की जमीन का अतिक्रमण किया है, उन जमीनों को लेकर वहाँ पर master प्लान के तहत बस्तियां बसा दी हैं, लोगों ने प्लॉट ख़रीदे हैं, लोगों ने मकान बनाए हैं और पीढ़ियों दर पीढ़ियों वो मकान बिकते रहे. तो अब तो अतिक्रमण करने वाला सिर्फ नेता नहीं है.

हालांकि एडीआर का एक सर्वे है कि 28 में से 26 विधायक जो हैं जिनका संबंध real estate से रहा है. लेकिन विकास प्राधिकरण भी तालाबों का अतिक्रमण कर रहा है। राजनीतिक लोग इन अतिक्रमण के जरिए बहुत पैसा कमाते हैं, मंत्री बनते हैं। इन्हीं लोगों से हम उम्मीद करते हैं कि ये तालाबों का संरक्षण करेंगे, वापस लाकर दे देंगे। तो ये कई तरह की चुनौतियां यहाँ पर आई हैं.

और बेलंदूर लेक की कहानी आप जानते ही होंगे कि कई बार झाग उसमें से निकलता है, झील में नाले का पानी गया है. ये भी एक समस्या है कि इस तरह से गंगा सफाई अभियान में आप बात करते हैं कि सीवर ट्रीटमेंट प्लांट होना चाहिए। तो तालाबों में भी होना चाहिए। वो नहीं हुआ और बेलंदूर लेक के आसपास जो वाटर चैनल थे।

जब एक तालाब का पानी भरकर दूसरे तालाब में जाता था तो उन नालों के ऊपर रिंग रोड बना दिया गया. इसी तरह से योजनाएं, विकास की योजनाएं बना दी गई, उन्हें तो आप ये अतिक्रमण नहीं कहेंगे और अंत में होता ये है कि सब तालाब का संपर्क एक दूसरे से टूट जाता है, जब बारिश आती है तो तालाब का पानी भर जाता है और वो वापस शहर में चला जाता है, उससे क्या होता है कि शहर में बाढ़ आ जाती है।

फिर आप तालाब को ही दोष देने लगते हैं, ठीक उसी तरह से जैसे आप पचास-साठ के दशक में मलेरिया के कारण तालाब को दोष देने लगते हैं. जबकि तालाब तो सदियों से हमारी बसावट का हिस्सा रहे हैं लेकिन हम मलेरिया तो नहीं फैला रहे थे. मलेरिया इसलिए फैला कि हम तालाब को गंदी निगाह से देखने लगे उससे गंदा होने के लिए छोड़ दिए.

अब तालाबों का जो सिस्टम है उसको खत्म आप कर देंगे तो उनके कारण जो पानी जमा होगा वो आपको एक तरह से आपको ले जाएगा और दूसरी तालाबों को तब तक पानी नहीं जाएगा तो शहर में बाढ़ की स्थिति होगी। जैसा कि आप पिछले कुछ वर्षों में आप बेंगलुरु का किस्सा देखते रहे हैं.

तो इस शहर में इतने सारे तालाब हैं, अगर बचा लिए गए होते, अगर पढ़े-लिखे लोगों ने यानी इंजीनियर लोगों ने इन तालाबों की अहमियत समझी होती, हमारी बसावट की परंपरा को समझा होता। तो हमारी जो शहरीकरण की जो तमाम प्रक्रियाएं हैं, उसमें तालाब अभिन्न अंग होते। हम अलग-अलग समय में पानी पीने के लिए, प्यास बुझाने के लिए, सांस लेने के लिए, इन-इन कारणों से तालाबों के बचाने के लिए नहीं लौटते.

बहुत अच्छी बात है कि बेंगलुरु में के संगठन ने कई तालाब बनाए हैं, बचाए हैं और 1998 में कब्बन लेक को लेकर बहुत आंदोलन हुआ. जब उसकी जमीन को लेकर उस पे फ्लैट बनाना चाहती थी सरकार अपने विधायकों के लिए जो मैं पढ़ रहा था. लेकिन सोचिए 1998 में उनकी चिंताएं तो सही साबित हुई. तो नब्बे के दशक से नागरिक कई जगहों पर संगठन बनाकर मुकदमे लड़ रहे हैं, राजस्व विभाग की मदद से सर्वे होते हैं इन तालाबों को बचाने की राजनीति होती है।

बेंगलोर जान गए है, अभी भी बेंगलुरु को अपने तालाबों को बचाने की सफलता नहीं मिली है, लेकिन इसके बाद भी ये प्रक्रिया यहाँ पर चल रही है, बहुत जटिल है, जिससे हम उम्मीद करते हैं, वही इसके अतिक्रमण के जिम्मेदार हैं, चाहे सरकारी विभाग हो, सरकारी विभागों में लड़ाई हो गई है। जब आप बेंगलुरु डेवलपमेंट अथॉरिटी दोषी पाया जाए कि उसने एक दर्जन से ज्यादा झीलों की जमीनों का अतिक्रमण कर बेच दिया है। तो फिर आप क्या उम्मीद करते हैं? इसी तरह की जो चीजें हैं, हमें तालाबों को समझनी है। तालाबों को हमने नष्ट कर बहुत बड़ी गलतियां की हैं.

दिल्ली में भी अभियान चला! अरविंद केजरीवाल ने कहा कि हम तालाबों को बचाएंगे और क्या लेक सिटी बना देंगे, ये नया नाम है, लेक सिटी तो कभी बनता नहीं है, बल्कि किसी ढाबे का नाम लेक सिटी हो जाता है, किसी होटल का नाम, लेक सिटी हो जाता है, लेक व्यू हो जाता है, लेकिन वो लेक वहां पर, झील वहां होती नहीं है.

ये नाला कभी गिरता होगा, लेकिन अब कोर्ट के के बाद ऐसा लग रहा है कि इसे बंद कर दिया गया है इस नाले को, अब नाला नहीं गिरता है। लेकिन कल्पना कीजिए कि लंबे समय तक किसी तालाब में नाले का पानी गिरे तो उस तालाब का क्या हाल होगा? लेकिन अब जो है ये काफी सुंदर लग रहा है, इसके किनारे घूमने की जगह बनाई जा रही है।

तो उसी शहर के लोग ज्यादा लाभ लेंगे, जब टहलने आएंगे, यहां पर अपना मनोरंजन करने आएंगे। जिस शहर के लोगों के कारण ये तालाब नष्ट हुए हैं। तो तालाब जब बचता है, तो कितना कुछ देकर जाता है, जब इसे नष्ट किया जाता है तो कितना कुछ लेकर जाता है। तो ये पानी का जो इकोसिस्टम है उसे खत्म किया गया है.

पर अब ये अच्छी बात है कि हम देख सकते हैं कि लोग जागरूक हो रहे हैं। देश के दूसरे हिस्से के लोग इससे सीख सकते हैं कि तालाबों को बचाने की जो प्रक्रिया है, जो राजनीतिक, सामाजिक प्रक्रिया है, वो बहुत जरूरी है.

पट्टनहल्ली एक झील है जो ब्रिगेड इलाके में है, उसे भी लोगों ने इसी तरह से बचाया। 2010 में उसे dead लेख की उपाधि दी गई थी. उसमें आसपास के की बसावट का गंदा पानी sewage का पानी आ गया था. फिर उसमें अदालत का हस्तक्षेप होता है. फिर इस झील को पटनहली झील को बचाया जाता है. लोग जुटते हैं लोग पैसा देते हैं. इसके किनारे जो पेड़ लगे हैं आप देख सकते हैं कि इस इस झील को बचाने के लिए लोग पेड़ों को गोद में लेते हैं, अपना नाम लगाते हैं. कई लोगों ने नाम तक नहीं दिए हैं.

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पर यहाँ पर पक्षी नजर आती है, चिड़िया नजर आती है। तो आप इस तरह से कुछ कहानियां झीलों को बचा लेने की है। कुछ कहानियां झीलों को बचाने के क्रम में विभागों की लड़ाई में उलझ जाने की है. कुछ कहानियां लड़ते-लड़ते थक जाने की है और कुछ कहानियां ऐसी है कि इतना कुछ नष्ट हो चुका है कि अब उसे बचाया नहीं जा सकता है, वापस नहीं लाया जा सकता है और उसकी भरपाई आप अमृत सरोवर जैसी योजनाओं से, सुंदर नाम वाली योजनाओं से नहीं कर सकते हैं.

क्योंकि जिस तरह से तालाब हमने अपने आसपास बनाए थे, उस तरह से बनाने की कल्पना मुझे नहीं लगता है कि इन योजनाओं में समाहित की गई है, इनका हिस्सा है तो वो एक सिर्फ प्रचार के लिए भी हो सकता है या कोई गड्ढा खोद के तालाब बना दिया जाएगा?

पर जिस तरह से हमने अपनी परंपरा में पूरे भारत में अगर आप देखें तो पश्चिम से लेकर दक्षिण, दक्षिण से लेकर उत्तर तक और पूरब तक में क्या उस परंपरा को पुनर्जीवित किया जा रहा है? तालाब को राजनीति और प्रशासन की लालच ने ख़त्म किया। लालच की जहर ने खत्म किया और अब हम उन तालाबों की जगह एक छोटा सा तालाब, एक दूसरा तालाब बनाकर उसे अमृतसर का नाम दे रहे हैं.

तो याद रखिएगा। पंद्रह अगस्त दो हजार तेईस तक देश के हर जिले में पचहत्तर तालाब बनने है. क्या ये बात आपके दिमाग में सबसे ऊपर है क्यों नहीं है क्या सरकार इस पर बार-बार बात कर रही है या अचानक ये घोषणा कर दी जाएगी कि देश में इतने तालाब बन गए हैं. तो यही सब बातें हम तालाब के जरिए आपसे करना चाहते थे.

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