Caste Census Ahead of UP-Bihar Elections: भारत की राजनीति में जाति जनगणना एक बार फिर केंद्रबिंदु बन गई है, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे चुनावी रूप से अहम राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों की पृष्ठभूमि में। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जातिगत जनगणना कराने की घोषणा ने देशभर में बहस छेड़ दी है—क्या यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक कदम है या फिर एक चतुर राजनीतिक चाल?
Caste Census Ahead of UP-Bihar Elections
जाति जनगणना: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
जाति भारत की सामाजिक संरचना की मूलभूत इकाई रही है, और राजनीतिक दलों के लिए यह हमेशा चुनावी समीकरणों को साधने का साधन रही है। वर्ष 1931 के बाद से कोई आधिकारिक जातिगत जनगणना नहीं हुई है। इसके बाद इस विषय को लंबे समय तक राजनीतिक रूप से टाल दिया गया, जबकि यह मुद्दा लगातार समाज में मौजूद रहा।
हाल ही में पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद जब देशभर में सुरक्षा को लेकर चिंता और आक्रोश था, तब केंद्र सरकार ने जातिगत जनगणना की घोषणा की। आलोचकों का मानना है कि “कौन जात हो?” जैसे सवाल ने आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे गंभीर मुद्दों से ध्यान हटाने का कार्य किया है।
राजनीतिक रणनीति और समय का महत्व
जातिगत जनगणना की टाइमिंग को लेकर कई राजनीतिक विश्लेषकों ने सवाल उठाए हैं। बिहार में 2025 और उत्तर प्रदेश में 2027 में चुनाव होने हैं। ऐसे में ओबीसी और दलित वोट बैंक को साधने के लिए यह कदम एक रणनीतिक चाल माना जा रहा है।
- चुनावी लाभ: भाजपा खुद को पिछड़े वर्गों की हितैषी पार्टी के रूप में पेश कर सकती है, जिससे पारंपरिक रूप से जातिवादी राजनीति करने वाली विपक्षी पार्टियों की पकड़ कमजोर हो सकती है।
- विपक्ष को घेरने की रणनीति: जाति पर आधारित विमर्श को फिर से केंद्र में लाकर भाजपा विपक्षी दलों को उनके ही हथियार से मात देने की तैयारी में दिख रही है।
नीति निर्माण बनाम राजनीतिक स्वार्थ
हालांकि सरकार का तर्क है कि जातिगत आंकड़ों के माध्यम से कल्याणकारी योजनाएं बेहतर तरीके से बनाई जा सकती हैं, लेकिन कई लोग इस पर शंका जता रहे हैं। उनका कहना है कि पहले जिन नीतियों में जाति का उल्लेख था, वे भी सही तरीके से लागू नहीं हो पाईं। ऐसे में अचानक जाति पर इतना जोर देना राजनीतिक स्वार्थ का संकेत देता है।
संभावित परिणाम: उम्मीदें और चिंताएं
सकारात्मक पहलू:
- उचित प्रतिनिधित्व: सही आंकड़े मिलने पर विभिन्न जातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिल सकता है।
- सटीक नीति निर्माण: सरकार जरूरतमंद समुदायों के लिए योजनाएं बना सकती है जो अधिक प्रभावी होंगी।
नकारात्मक प्रभाव:
- सामाजिक विघटन: जाति की पहचान को लेकर बढ़ती बातचीत समाज में दरारें गहरा सकती हैं।
- विवाद और तनाव: आंकड़ों के सार्वजनिक होने के बाद आरक्षण और संसाधनों को लेकर संघर्ष की संभावना बढ़ सकती है।
आगे की राह
जाति जनगणना एक दोधारी तलवार है। यदि इसे पारदर्शिता और निष्पक्षता से लागू किया गया, तो यह सामाजिक समानता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बन सकता है। लेकिन अगर इसका इस्तेमाल केवल चुनावी लाभ के लिए किया गया, तो यह सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुँचा सकता है।
निष्कर्ष
जातिगत जनगणना की पहल भारत की राजनीति और समाज दोनों के लिए निर्णायक मोड़ हो सकती है। सवाल यह है कि क्या “कौन जात हो?” का सवाल हमें एक समावेशी भारत की ओर ले जाएगा या फिर हमें जातिगत बंटवारे की ओर धकेल देगा?
चुनाव पास हैं, और यह समय है सोचने का—क्या यह जनगणना सामाजिक परिवर्तन का वाहक बनेगी या फिर महज एक चुनावी पैंतरा?
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