Modern Indian Politics: साल 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के बनने से पहले के दौर को याद कीजिए। देशभर में यादव, मुस्लिम, ब्राह्मण तमाम जातियों के आधार पर राजनीतिक समीकरणों की चर्चा ही चुनावों में हुआ करती थी।
ये चर्चा आज भी होती है. यहां तक कि टिकट देने में जाति का अहम रोल होता है. लेकिन सिर्फ यही एक मुद्दा नहीं रहा है। अब काम और नेता के आधार पर भी वोटिंग का पैटर्न बदल चुका है।
आज के समय चुनाव जीतने के लिए आपको सबसे पहले भारत को समझना होगा। अपने कान को जमीन से लगाए रखने की जरूरत है और नए उभरते ट्रेंड्स को भी भांपना होगा। जाने माने लेखक और विश्लेषक चेतन भगत कहते हैं कि भारतीय मतदाताओं और आम जनता के सोचने का तरीका भी बदल रहा है और कोई भी सियासी दल या नेता इन उभरते हुए ट्रेंड्स को नजरअंदाज नहीं कर सकता है। आइये अब जानते हैं भारतीय राजनीति के 5 ऐसे नए और मजबूत ट्रेंड्स के बारे में जो आगे चलकर और भी प्रभावशाली हो सकते हैं। यह भारत के बदलते राजनीतिक मिजाज को बखूबी दिखाते हैं और ये आज के नेताओं के लिए एक सबक की तरह हैं।
1. राजनीति में वंशवाद का टाइम बीत चुका
एक दौर था जब भारत के लोग वंशवाद को पसंद किया करते थे। अगर आपके पिता या मां उसी प्रोफेशन में हैं तो अभिनेताओं से लेकर नेताओं तक को बड़े पैमाने पर इसका फायदा होता रहता था। वह भी खुद में एक ब्रांड की तरह बन जाते थे और भारतीय उनके नाम के आखिरी शब्द यानी टाइटल पर भरोसा भी किया करते थे। विरासत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक निर्बाध रूप से आगे बढ़ती रहती थी। क्योंकि पहले देश में राजतन्त्र था और उसमे वंशवाद ही चला करता था. हम सब रांची के किसी युवक की फिल्म क्यों ही देखें, जब हमारे पास एक सुपर स्टार के बेटे की फिल्म देखने का विकल्प मौजूद है! सड़क पर प्रदर्शन करने वाले पूर्व IRS अधिकारी को हमें वोट क्यों ही करना चाहिए! जब हम एक पूर्व प्रधानमंत्री के बेटे को वोट कर सकते हैं! कुछ इसी तरह से भारतीय लगातार सोचते आए हैं। आम लोगों की यह मानसिकता पिछले कुछ दशकों तक बरकरार रही थी।
हालांकि अब भारत की आम जनता थोड़ा अलग तरह से सोचने लगी हैं। उन्होंने ऐसा क्या किया है जिससे लगे कि वह अपने पिता की विरासत और उनके कामों को आगे ले जा सकने के योग्य है? क्या वह अच्छी एक्टिंग करते है या वह सिर्फ इसलिए है, क्योंकि उसकी मां भी एक एक्टर थी? आम लोगों के दिमाग में अब इस तरह के सवाल उठते रहते हैं और इस तरह से अब परिवार में ब्रांड वैल्यू का ट्रांसफर पहले जैसा नहीं बचा है।
हालांकि, यहाँ पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि भारत की आम जनता ने योग्यता और भाई-भतीजावाद को लेकर पूरी तरीके से यू-टर्न ले लिया है। विरासत, वंशवाद अब भी बहुत मायने रखता है। लेकिन लोग अब पात्रता और जवाबदेही के एंगल से भी लोग सोचने लगे हैं। वर्तमान समय में राजनीति में कांग्रेस, शिवसेना और सुपरस्टारों के कई बच्चे जो अच्छा नहीं कर पा रहे हैं, वे वंशवाद की वैल्यू घटने के ज्वलंत उदाहरण रहे हैं।
2. देश में जाति आधारित राजनीति भी अब चरमरा रही
वैसे देखा जाए तो देश में जाति अब भी मायने रखती है। यहां पर हम ट्रेंड्स की बात कर रहे हैं, पूरी तरिके से बदलाव की बात नहीं और हाँ ट्रेंड्स यह कहता है कि आज के समय में आम वोटर जाति को उतना ज्यादा महत्व नहीं देता है जितना पहले दिया करता था। देश के कई राज्यों में, उम्मीदवार की जाति अब भी मायने रखती है. लेकिन अब यह प्रमुख मुद्दा नहीं रही है, जिसके आधार पर कोई जीत का अनुमान लगा सके। यही वजह है कि भाजपा हिंदू वोट को एकजुट करने में सक्षम हो सकी है। जातिगत भेदभाव अभी भारत से पूरी तरीके से खत्म नहीं हुआ है. लेकिन कुछ हद तक समाज में यह घटा जरूर है। यहाँ पर स्थिति कुछ ऐसी है कि पूरी तरह से जाति आधारित राजनीति करने वाली बसपा जैसी पार्टियों को चुनाव में सफलता बहुत ही कम मिल रही है।
3. चुनाव में क्षेत्रीय सियासी पहचान भी धुंधली हो रही है
हमारा देश विविध संस्कृतियों वाला देश रहा है। हालांकि इन सब के बीच अब क्षेत्रीय पहचान कमजोर हो रही है. जिसकी वजह से भारत के कई हिस्सों में एक समान भारतीय संस्कृति अब दिखाई देने लगी है। देश में अभी भी कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां क्षेत्रीय पहचान मजबूती से मौजूद है. जिसमें पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पूर्वोत्तर के क्षेत्र शामिल हैं। इन चिन्हित क्षेत्रों में राज्य की राजनीति में क्षेत्रीय पार्टियां हावी रहती हैं। हालांकि कई बड़े राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों और क्षेत्रीय नेता अब राजनीतिक मंच के नेपथ्य में दिखाई देने लगे हैं।
मराठियों की अपनी अलग एक समृद्ध संस्कृति रही है. लेकिन अब यह साफ दिखाई देता है कि उन्हें अकेले मराठी पहचान के आधार पर वोट देने की जरूरत नहीं है। अन्य राज्यों जैसे कि कर्नाटक, आंध्र और तेलंगाना में भी क्षेत्रीय पार्टियों का महत्व अब पहले की तुलना में घट चुका है। बड़े उत्तरी राज्यों जैसे राजस्थान, गुजरात, यूपी और बिहार में क्षेत्रीय पहचान वाली राजनीति अब राजनीतिक एजेंडा सेट नहीं कर पा रही हैं। अत्यंत विशिष्ट संस्कृति वाले राज्यों को छोड़कर भारत में अब ये ट्रेंड समरूपता का ही दिखाई देता है।
4. देश में हिंदू और हिंदुत्व की चर्चा ज्यादा
हिंदुत्व की चर्चा होने की शायद वजह यह है कि पहले जाति और अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण वाली राजनीति के कारण हिंदुओं के मुद्दों को अधिक महत्व नहीं दिया जाता था या फिर शायद सोशल मीडिया के कारण हिंदुओं के मसले जोर शोर से सामने आने लगे हैं। वैसे देश के राजनीतिक मुद्दे के लिहाज से देखें तो जाति और क्षेत्रीय पहचान बहुत ज्यादा कमजोर हो रही है. लेकिन हिंदू-मुस्लिम मुद्दे और उससे जुड़ी राजनीति देशभर में बढ़ रही है। हिंदू-मुस्लिम पॉलिटिक्स के कई वर्जन रहे हैं। एक तरफ इसमें बेहद तीखा शोर है और दूसरी तरफ एक बड़ा समूह शांत है जो हिंदुओं से जुड़े मसलों को सपोर्ट करता रहता है। आजकल कुछ हद तक भले ही भारत में जाति और क्षेत्रीयता के मसले पर समरूप और ज्यादा एकजुट दिखाई देता है, लेकिन फिर भी मौजूदा राजनीति में धार्मिक मामलों की भूमिका ज्यादा बढ़ी है।
5. देश में अब अच्छा बोलने वाले नेता का बोलबाला
आजकल आम लोग समझते हैं कि डिजिटल वर्ल्ड में कंटेंट ही सब कुछ है। यहाँ पर एक राजनेता जो भी करता है या कहता है वह कंटेंट ही है और सार्थक कंटेंट प्रेरक, प्रासंगिक, स्मार्ट होने के साथ ही उसमें एक भावुक हिस्सा भी जुड़ा होता है। अगर कोई नेता लोगो के सामने अच्छा कंटेंट नहीं दे पाता है जो इन पैरामीटर्स पर खरा उतरे तो इस बात की संभावना कम ही रहती है कि उसे लोगों का अटेंशन और प्यार मिले। इससे आम लोगों का दिल नहीं जीता जा सकेगा और फिर भारतीयों का वोट पाना भी मुश्किल ही होगा। कुछ ही नेता ऐसे हैं जो हर बार जीतते हैं।
भारतीय राजनीति पर करीबी से नजर रखने वाले इस बात से सहमत होंगे कि यहां पर रोमांच भरा पड़ा है। महाविकास अघाड़ी (MVA) का महाराष्ट्र एपिसोड ताजा उदाहरण है। ऐसे में जीतने के लिए ट्रेंड्स को समझना होगा। राजनीति या अपने निजी जीवन में, अगर दुनिया बदल रही है तो आपको प्रासंगिक बने रहने के लिए खुद को भी बदलना होगा। इस महान लोकतंत्र में जो बदलाव के साथ चले, उन्हें बड़ी सफलता मिली। जो नहीं कर सके, वे शो से हट जाएंगे और अगले सीजन में मौका भी नहीं पाएंगे।