Atul Subhash Case: हमारे समाज में जब अतुल सुभाष के मामले की खबर फैली, तो इसे लेकर सोशल मीडिया पर बवाल मच गया। पहली बार भारत में पुरुषों के मुद्दे मुख्यधारा की बातचीत का हिस्सा बने। इस घटना ने हमारे न्यायिक, कानूनी और सामाजिक व्यवस्था में पुरुषों के साथ होने वाले अन्याय पर सवाल खड़े किए। लेकिन क्या इन मुद्दों पर गंभीरता से चर्चा होती है? आइए इसे विस्तार से समझते हैं।
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Atul Subhash Case
IPC धारा 498A और वैवाहिक विवाद
IPC की धारा 498A का उद्देश्य था महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा को रोकना। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने 2 साल पहले इस कानून के दुरुपयोग को लेकर चिंता जताई। कोर्ट ने कहा कि पत्नियां अपने पति और उनके परिवार को फंसाने के लिए इसका गलत इस्तेमाल कर रही हैं। इससे जुड़े कई मामले सामने आए जब इस धारा का प्रयोग तलाक या व्यक्तिगत रंजिश में किया गया।
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती। पुरुषों के लिए ऐसे सामाजिक संगठन बने हैं जो इस तरह की परेशानी का सामना कर रहे लोगों की मदद करते हैं। हालांकि, इसके बावजूद समाज और न्यायिक व्यवस्था से जुड़े पुरुषों के मुद्दे अक्सर नजरअंदाज कर दिए जाते हैं।
लड़कों पर सामाजिक दबाव
बचपन से ही लड़कों पर कई तरह का दबाव डाला जाता है। उन्हें सिखाया जाता है कि रोना, नर्म होना, या अपनी भावनाओं को व्यक्त करना उनकी ‘मर्दानगी’ के खिलाफ है। यदि एक लड़का संवेदनशील हो, तो उसे कमजोर समझा जाता है। वहीं, यदि वह अपने इमोशंस नहीं दिखाता, तो कहा जाता है कि उसमें फीलिंग्स नहीं हैं।
यह दोहरा मापदंड सिर्फ भावनाओं तक सीमित नहीं रहता। करियर के मामले में भी, यदि कोई लड़का शिक्षक, नर्स या बच्चों की देखभाल जैसी “नरम” पेशों को चुनता है, तो उसे समाज से तानों का सामना करना पड़ता है।
नौकरी और शादी का रिश्ता
“अकेले मर्द को कोई अपनाने को तैयार नहीं।” यह वाक्य हमारे समाज में गहरी जड़ें जमा चुका है। शादी के लिए सिर्फ नौकरी होना ही काफी नहीं है। एक पुरुष को अच्छी कमाई करनी होगी, वरना उसे शादी के लायक नहीं समझा जाता।
2012 के एक डेटिंग सर्वे में पाया गया कि 66% पुरुष बेरोजगार महिलाओं को डेट करने के लिए तैयार थे। वहीं, सिर्फ 25% महिलाएं बेरोजगार पुरुषों को डेट करना चाहती थीं। यही कारण है कि बेरोजगारी पुरुषों के लिए सिर्फ आर्थिक संकट नहीं है, यह उनका सामाजिक दर्जा भी कम करती है।
पुरुषों में अवसाद और आत्महत्या
पुरुषों में डिप्रेशन का सबसे बड़ा कारण उनका अपनी भावनाएं न व्यक्त कर पाना है। उन्हें सिखाया जाता है कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता।’ इसी मानसिकता के चलते, वे अपनी समस्याओं को दोस्त या परिवार के साथ साझा करने में हिचकिचाते हैं।
2021 में, भारत में कुल 1,65,000 आत्महत्याओं में से 1,20,000 पुरुष थे। महिलाएं भी अवसाद झेलती हैं, लेकिन पुरुषों में आत्महत्या दर कहीं ज्यादा है। इसका एक बड़ा कारण यही है कि वे अवसाद को स्वीकार नहीं करते और न ही मदद मांगते हैं।
करियर और लिंगभेद
कुछ पेशे जैसे प्री-स्कूल टीचिंग, नर्सिंग और मनोचिकित्सा समाज में पुरुषों के लिए “अनुपयुक्त” माने जाते हैं। पुरुषों को करियर बनाते समय हमेशा यह सोचना पड़ता है कि उनके पेशे को समाज किस नजर से देखेगा।
2021 में अमेरिका में, केवल 13.3% नर्स पुरुष थे। भारत में यह संख्या 20% है, जो अन्य देशों से बेहतर है, लेकिन समाज की मानसिकता अब भी काफी पिछड़ी हुई है।
प्रेम और विवाह के आधुनिक परिप्रेक्ष्य
कई पुरुषों का मानना है कि विवाह और रिश्ते उनके लिए नुकसानदायक हो सकते हैं। अतुल सुभाष जैसे मामलों के चलते, सोशल मीडिया पर “सिंगल रहो, मस्त रहो” जैसे नारे गूंजने लगे हैं। वहीं, महिलाओं की ओर से भी “सारे पुरुष एक जैसे हैं” या “सभी पुरुषों पर शक करो” जैसे बयान सामने आते हैं।
लेकिन क्या यह समाधान है? बिल्कुल नहीं। रिश्तों की नींव भरोसा और आपसी समझ पर होनी चाहिए। जाति, धर्म और पैसे के आधार पर बनाए गए रिश्ते लंबे समय तक नहीं टिकते।
समाधान: मिल-जुलकर काम करना
पुरुषों और महिलाओं के मुद्दे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस तरह महिलाओं की समस्याओं को सुलझाने के लिए समाज एकजुट होता है, वैसे ही पुरुषों की समस्याओं पर भी ध्यान देना जरूरी है।
आलोचना और एक-दूसरे पर दोषारोपण से कुछ नहीं बदलेगा। समाज को एक समभाव और सहयोग की दिशा में आगे बढ़ना होगा।
निष्कर्ष
पुरुषों और महिलाओं के मुद्दे एक जटिल लेकिन आपस में जुड़े हुए विषय हैं। यदि समाज को बेहतर बनाना है, तो हमें स्टीरियोटाइप्स को खत्म करना होगा। ‘पुरुष रोते नहीं’, ‘महिलाएं कमजोर हैं’, जैसे विचारों को पीछे छोड़ना होगा। जब तक दोनों लिंग समान अधिकार और अवसरों का आनंद नहीं लेंगे, तब तक समाज में सच्ची प्रगति नहीं हो सकती।
समाज को संवेदनशील बनाना हमारा सामूहिक कर्तव्य है।
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