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रूपकुंड ट्रेक: एक रहस्यमयी यात्रा, Roopkund Trek

Roopkund Trek: हिमालय की गोद में बसे रूपकुंड झील को उसके रहस्यमयी कंकालों के लिए जाना जाता है। यह झील ऊंचाई पर स्थित एक अनसुलझी पहेली है। इसी रोमांचक जगह तक पहुँचने के लिए मैंने अपने जीवन की सबसे कठिन और लंबी ट्रेकिंग का सामना किया। यह 6 दिनों की यात्रा मौसम, नज़ारों और कठिनाइयों से भरी हुई थी। आइए इस अविस्मरणीय यात्रा की कहानी साझा करते हैं।

Roopkund Trek

Roopkund Trek

लोहारजुंग से शुरूआत

रूपकुंड ट्रेक की शुरुआत उत्तराखंड के चमोली जिले के लोहारजुंग नामक छोटे से गाँव से होती है। यह गाँव ऋषिकेश से लगभग 250 किलोमीटर दूर है। सुबह 8 बजे मैं अपनी टीम, रफ्तार एडवेंचर के साथ, पूरी तैयारियों के साथ ट्रेक पर निकला। पहले हमें लोहारजुंग से कुलिंग गाँव तक गाड़ी से जाना था।

कुलिंग से दिदना

कुलिंग से 6 किलोमीटर की पैदल यात्रा करके दिदना गाँव पहुँचने का लक्ष्य था। इस दौरान हमने एक ऐसा इलाका पार किया जिसे अखोड़ी बगड़ कहते हैं। यह जगह अखरोट के पेड़ों की बहुतायत के कारण जानी जाती थी। पानी के झरनों से बोतलें भरते और बीच-बीच में रुककर सांस लेते हुए हमने आखिरकार दिदना पहुँचकर अपना पहला ब्रेक लिया। यहाँ हमारा एक सरल लेकिन आरामदायक हॉमस्टे इंतजार कर रहा था।

अली बुग्याल की ओर

दूसरे दिन हमें 12 किलोमीटर दूर अली बुग्याल पहुँचना था, जिसे एशिया का सबसे बड़ा बुग्याल माना जाता है। रास्ते में हमने घने जंगलों से गुजरते हुए झूला घास और छोटे नाले देखे, जहाँ हमने पानी भरा और आराम किया। रास्ते में टोलपानी नामक जगह आई जहाँ गड़रियों के लिए बनी लकड़ी और घास की छानियां थीं।

कठिन चढ़ाई और जंगलों के बीच पहुंचा खन टॉप, जहाँ एकमात्र चाय का स्टॉल था। यहाँ हमने कुछ देर आराम किया और आश्चर्यजनक किस्से सुने। लेट लंच के बाद बुग्याल के खुले मैदानों में बैठे हिमालय के ईगल्स देखने का अनुभव अद्वितीय था। शाम तक हम अपने कैंपसाइट पर पहुँचे, जहाँ हमें माथे पर ठंडी तेज़ हवाओं का सामना करना पड़ा।

पातर नचौनी: रोचक कहानियों का गवाह

तीसरे दिन अली बेदनी बुग्याल से पातर नचौनी तक का 7 किलोमीटर का ट्रेक तय किया। इस जगह का नाम एक दिलचस्प कहानी से जुड़ा है, जिसमें राजा यश धवल की यात्रा के दौरान उनकी नाचने वाली महिलाएँ गड्ढों में गिर गईं। इसीलिए इसे ‘पातर नचौनी’ कहा जाता है।

बाघु बासा: रूपकुंड के लिए बेस कैंप

पातर नचौनी से अगले पड़ाव बाघु बासा तक का सफर फॉग और ठंडी हवाओं से भरा था। यहाँ हमने भगवान गणेश के मंदिर ‘कालवा विनायक’ के दर्शन किए। बाघु बासा, जिसका अर्थ है बाघ का वास, अगली सुबह हमारे अंतिम गंतव्य रूपकुंड की यात्रा का बेस कैंप था।

रूपकुंड झील: कंकालों का रहस्यमय ठिकाना

सुबह 3:30 बजे उठकर हमने रूपकुंड के लिए चढ़ाई शुरू की। जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती गई, ऑक्सीजन की कमी और बर्फीले रास्ते ने इसे चुनौतीपूर्ण बना दिया। 4 किलोमीटर का यह सफर धीमा लेकिन यादगार था।

रूपकुंड झील के किनारे पहुँचने पर मानव कंकालों की मौजूदगी ने एक अजीब सिहरन पैदा की। झील के किनारे शिव और पार्वती का एक छोटा मंदिर भी है। स्थानीय कहानियाँ बताती हैं कि शिव ने यहाँ पार्वती के लिए झील बनाई थी।

कंकालों से जुड़े कई अध्ययन बताते हैं कि ये लोग धार्मिक यात्रा पर आए थे और खराब मौसम या भारी बर्फबारी के कारण उनकी मृत्यु हो गई। कुछ कंकाल अभी भी झील के अंदर जमे हुए हैं, जो तब देखे जा सकते हैं जब झील की बर्फ पिघलती है।

रोचक अनुभव और यादें

रूपकुंड से वापस बाघु बासा और फिर लोहारजुंग लौटने तक इस यात्रा में कई किस्से जुड़े। रास्ते में ‘कीड़ाजड़ी’ नामक औषधीय घास का मिलना, स्थानीय मान्यताएँ, और बदलता मौसम हर पल को रोमांच से भर रहा था।

निष्कर्ष

रूपकुंड ट्रेक सिर्फ एक लंबी पैदल यात्रा ही नहीं, बल्कि हिमालय के अनोखे रहस्यों और प्राकृतिक सुंदरता को करीब से देखने का एक मौका है। यह ट्रेक बताता है कि हिमालय के हर कोने में एक कहानी छिपी है। अगर आप प्रकृति और रोमांच से प्यार करते हैं, तो रूपकुंड ट्रेक आपकी “टू-डू लिस्ट” में जरूर होनी चाहिए।

रफ्तार एडवेंचर जैसी अनुभवी टीम के साथ इस यात्रा ने न सिर्फ मुश्किलों को आसान बनाया बल्कि इसे यादगार भी बना दिया। हिमालय का ये पूरा अनुभव शब्दों से परे है।

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