Premanand Ji Maharaj Biography: प्रेमानंद जी महाराज का असली नाम क्या है और वो कैसे बनें एक सन्यासी? बाबा कहाँ के रहने वाले है और उनके परिवार में और कौन-कौन है साथ ही जानेंगे उनकी शादी हुई है या नहीं! हमारी नयी कहानी में जानिए वृंदावन वाले प्रसिद्ध बाबा प्रेमानंद जी महाराज के जीवन की असली कहानी।
Baba Premanand Ji Maharaj Biography
आज के समय में सत्संग और प्रवचन करने वाले बाबा प्रेमानंद जी महाराज को हर कोई जानता है. भारत में वे आज के समय के प्रसिद्ध संत और आध्यात्मिक गुरु हैं. इसी वजह से उनके भजन और सत्संग को सुनने के लिए और उनके दर्शन के लिए दूर-दूर से भक्त और श्रद्धालु आते हैं. पंडित धीरेन्द्र शास्त्री की तरह ही प्रेमानंद जी महाराज की प्रसिद्धि बहुत दूर-दूर तक फैली हुई है.
बाबा को नजदीक से जानने वाले बताते हैं कि प्रेमानंद जी महाराज को भगवान शिव के साक्षात दर्शन हुए हैं. इसके बाद वे अपने परिवार और घर का त्याग कर सन्यासी बनकर पहले वाराणसी आये और फिर वृंदावन पहुंचे. लेकिन क्या आपको पता है कि प्रेमानंद जी महाराज ने क्यों साधारण जीवन का त्याग कर भक्ति और सत्संग का मार्ग चुना और क्यों सन्यासी कैसे बन गए. आइये जानते है विस्तार से.
कानपुर (उत्तर प्रदेश) के हिन्दू, ब्राह्मण परिवार में महाराज का जन्म हुआ और जन्म के समय से ही उनके मुखमंडल पर तेज का अहसास होता था. सन्यासी बनने से पहले बाबा का नाम अनिरुद्ध कुमार पांडेय हुआ करता था. महाराज जी के पिता का नाम श्री शंभू पांडे और मान का नाम श्रीमती रामा देवी है. महाराज जी के परिवार में सबसे पहले प्रेमानंद जी के दादा संन्यास लिया था. इनके पिताजी भी धर्म और भगवान की भक्ति अटूट आस्था रखते थे. साथ ही इनके बड़े भाई भी भागवत कथा का पाठ रोजाना किया करते थे.
पांचवीं कक्षा जब वह पढ़ते थे तो उसी समय से वो गीता प्रेस एक आध्यात्मिक किताब श्री सुख सागर को पढ़ना शुरू कर दिया था। इस छोटी से उम्र में ही वो जीवन के असली कारणों की खोज में लग गए थे। तब स्कूल में पढ़ने और भौतिकवादी ज्ञान प्राप्त करने के महत्व पर भी उन्होंने सवाल उठाया। साथ ये भी बताया कि यह ज्ञान कैसे उन्हें अपने लक्ष्यों को, जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में मेरी मदद करेगा। इसी समय से वह कई सारे मन्त्रों का जाप करने लगे थे.
कक्षा 9 में जब वह पहुंचे तो उन्होंने तय कर लिया था कि वह अब आध्यात्मिक जीवन की ओर बढ़ेंगे, जो उन्हें ईश्वर तक पहुँचने में मदद करेगा। इसके लिए उन्होंने अपनी माँ से भी बात किया और वह इसके लिए घर त्यागने को भी तैयार थे।
13 वर्ष की उम्र में उन्होंने ब्रह्मचारी बनने का फैसला कर लिया। फिर वो अपने घर को छोड़कर संन्यासी बन गए. उस समय इनका नाम “आर्यन ब्रह्मचारी” रखा गया था.
संन्यासी बनने के लिए महाराज सबसे पहले अपना घर त्याग कर वाराणसी पहुंचे। यहीं अपना सन्यासी और तपस्वी जीवन जीने लगे. वाराणसी में दिनचर्या में वे गंगा में प्रतिदिन 3 बार स्नान करते थे और तुलसी घाट पर भगवान शिव और माता गंगा का ध्यान व पूजन करते थे. दिन में केवल वो एक बार ही भोजन लेते थे.
वाराणसी के घाट पर भिक्षा मांगने के स्थान पर प्रेमानंद महाराज जी भोजन प्राप्ति की इच्छा से 10-15 मिनट बैठा करते थे. इतने समय में उनको भोजन मिला तो वह उसे ग्रहण करते थे और अगर किसी ने भोजन नहीं दी तो वो सिर्फ गंगाजल पीकर रह जाते थे फिर वो दिनभर कुछ भी नहीं खाते थे. संन्यासी जीवन में प्रेमानंद जी महाराज ने इस तरीके से कई-कई दिन भूखे रहे है.
बाबा के वृंदावन पहुंचने की कहानी भी अनोखी और दिलचस्प है. वाराणसी के घाट पर महाराज से मिलने एक अपरिचित संत आए. उस संत ने श्री हनुमत धाम विश्वविद्यालय में श्रीराम शर्मा के द्वारा आयोजित श्री चैतन्य लीला और रात्रि में रास लीला के मंचन में महाराज को आमंत्रित किया. शुरू में महाराज जी ने अपरिचित साधु को लीलाओं के मंचन में आने के लिए मना कर दिया. लेकिन संत द्वारा काफी आग्रह किया जाने के बाद, महाराज जी ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया. जब बाबा लीलालों का आयोजन देखने गए तो उन्हें वो आयोजन बहुत पसंद आ गया. एक महीने तक लगातार लीलाओं का आयोजन चलने के बाद वो आयोजन समाप्त हो गया.
जब लीलाओं का मंचन समाप्त हो गया तो महाराज के मन में फिर से इन लीलाओं को देखने की लालसा हुई. इसके बाद महाराज जी उसी संत से मिलने गए जो उन्हें आमंत्रित किये थे. महाराज जी उनसे कहने लगे कि मुझे भी अपने साथ ले चलें, जिससे कि मैं और भी रासलीला को देख सकूं और बदले मैं आपकी सेवा भी करूंगा.
उस भले संत ने महाराज से कहा कि आप वृंदावन आ जाएं, वहां तो आपको प्रतिदिन रासलीला के दर्शन होंगे। बाद में स्वामी जी की सलाह पर और श्री नारायण दास भक्तमाली (बक्सर वाले मामाजी) के एक शिष्य की मदद से एक दिन मथुरा जाने वाली ट्रेन में वो सवार हो गए. तब उन्होंने ऐसा नहीं सोचा था कि वो हमेशा के वृंदावन के हो जायेंगे।
वृन्दावन में उनकी शुरुआती दिनचर्या में वृंदावन की परिक्रमा और श्री बांके बिहारी के दर्शन करना शामिल था। एक दिन बांके बिहारी मंदिर में उन्हें एक दूसरे संत ने कहा कि उन्हें श्री राधावल्लभ मंदिर में भी दर्शन को जाना चाहिए। फिर क्या महाराज जी वृंदावन में राधा रानी और श्रीकृष्ण के चरणों में ही रहे.