Karpoori Thakur Biography: हक चाहिए तो लड़ना सीखो, जीना है तो मरना सीखो…. ये कहना था बिहार के ऐसे राजनेता का, जिन्हें जननायक के तौर पर देखा जाता है। एक ऐसे नेता, जो 30 सालों तक विधायक रहने के बाद भी अपने लिए एक घर तक नहीं बना पाए…विदेश जाना था तो दोस्त से फटा कोट मांगकर पहुंच गए…. जनता से चंदा इकट्ठा करके जीवनभर चुनाव लड़ा……एक ऐसे नेता जिन्हें लालू यादव और नीतिश कुमार अपना गुरू मानते हैं…. और अब जिन्हें मरणोप्रांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न देने का ऐलान किया गया है।
दोस्तों हम बात कर रहे हैं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की, जिन्हें आज भी सबसे आदर्श नेता के तौर पर देखा जाता है। 24 जनवरी 2024 को उनकी 100वीं पुण्यतिथि से एक दिन पहले उन्हें केंद्र सरकार ने भारत रत्न देने का ऐलान किया है। RJD और JDU जैसी कई पार्टियां लंबे समय से उन्हे कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की मांग कर रही थी।
लेकिन आखिर कर्पूरी ठाकुर ने ऐसा क्या किया जो जननायक और सामाजिक नेता के तौर पर देखा जाता है। ऐसे कौन-से फैसले उन्होंने लिए थे, जिनके लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है और उनकी लाइफ से जुड़े कई ऐसे किस्से आपको सुनाएंगे, जिनके बारे में जानकर आप कहेंगे कि वाह! नेता हो तो ऐसा हो।
Karpoori Thakur Biography
कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी, 1924 के दिन बिहार के समस्तीपुर जिले के पितौंझिया गांव में हुआ था। आज उनके गांव को कर्पूरी ग्राम के नाम से जाना जाता है। वो नाई जाति से ताल्लुक रखते थे, जो बिहार में पिछड़े वर्ग की जाति में गिनी जाती है। पिता का नाम गोकुल ठाकुर और मां का नाम राम दुलारी देवी था।
बचपन में वो गांव के अन्य लोगों की तरह ही गाय भैंस चराते थे। उन्हें गीत गाने और ढफली बजाने का भी शौक था। साल 1940 में कर्पूरी ठाकुर ने अपनी 10वीं की परीक्षा पास की थी और उस समय पूरे बिहार में सिर्फ 5 लोग ही मेट्रिक की परीक्षा में पास हो पाए थे। स्कूल की पढ़ाई पूरी होने के बाद दरभंगा के चंद्रधारी मिथिला कॉलेज में एडमिशन लिया, जहां वो नंगे पैर ट्रेन में सफर करके पहुंचते थे। लेकिन आर्थिक तंगी के कारण पढ़ाई बीच में छोड़ स्कूल में टीचर की नौकरी करने लगे, जहां उन्हें 30 रुपए महीना सैलरी मिलती थी।
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कर्पूरी ने नौकरी छोड़ दी और देश को आजाद कराने की जंग में अपना योगदान देने लगे। एक दिन उन्होंने सभा में कहा था कि हमारी आबादी इतनी अधिक है, कि यदि हम सब मिलकर थूकेंगे तो अंग्रेजी राज बह जाएगा। उनके इतना कहने के कारण उन्हें जेल में जाना पड़ा। जेल में कैदियों के लिए सुविधाएं बहुत बेकार थी। उन्होंने अच्छी सुविधाओं के लिए आवाज उठाई और करीब 25 दिन तक उपवास पर रहे।
इसके बाद अंग्रेजी प्रशासन को उनकी मांगों के आगे झुकना पड़ा और कैदियों को अच्छी व्यवस्थाएं देने की शुरुआत हुई। इसी बीच उन्हें राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण का साथ मिला, जिन्हें कर्पूरी ने अपना राजनैतिक गुरू स्वीकार कर लिया।
आजादी के बाद साल 1952 में कर्पूरी ठाकुर ने ताजपुर से पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ा। उस समय उनके पास चुनाव लड़ने के लिए पैसे बिल्कुल नहीं थे। लोगों से अठन्नी और चवन्नी इकट्ठा कर उन्होंने चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। साल 1985 तक वो लगातार विधायक बने रहे। इस बीच दो बार वो बिहार के मुख्यमंत्री बने और एक बार उप मुख्यमंत्री भी बने।
1967 में वो बिहार के डिप्टी सीएम बने थे और 1970 में उन्होंने पहली बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लेकिन 6 महीने में ही उनकी सरकार गिर गई। साल 1977 में उन्होंने वो दूसरी बार बिहार के सीएम बने और इस बार करीब दो साल तक वो सीएम पद पर बने रहे। अपने करियर की शुरुआत प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से की थी। बाद में जनता पार्टी और जनता दल में शामिल होकर उन्होंने अपना करियर आगे बढ़ाया। कर्पूरी ने अपने पूरे जीवन मे सिर्फ एक बार हार का मुंह देखा। साल 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद जब लोकसभा चुनाव हुए तो उसमें कर्पूरी को हार मिली थी।
कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में कई एतिहासिक फैसले लिए थे। साल 1978 में उन्होंने पहली बार बिहार में पिछड़े वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरी में 26 पर्सेंट का आरक्षण दिया था। इसके बाद देश के अन्य कई राज्यों ने उनके इस फॉर्मूला को अपनाया। वो बिहार में land reforms लेकर आए थे और शराब पर भी उन्होंने प्रतिबंध लगा दिया था।
कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में 10वीं क्लास में इंग्लिश सब्जेक्ट को अनिवार्य सब्जेक्ट्स की सूची से हटा दिया था, जिससे कि इस भाषा के कारण जो लोग फेल हो जाते है, वो भी आगे पढ़ाई कर सके। उन्होंने उर्दू भाषा को बिहार में दूसरी राजकीय भाषा का दर्जा दिया था। कई स्कूल भी उन्होंने खुलवाए। उनके जीवन के अन्य कई किस्से मशहूर हैं।
एक बार कर्पूरी का चयन ऑस्ट्रिया जाने वाले प्रतिनिधिमंडल में हुआ था। वो विधायक थे और उनके पास एक कोट भी नहीं था। अपने दोस्त से उन्होंने कोट मांगा जो फटा हुआ था और वही कोट पहनकर वो रवाना हो गए। जब वो यूरोप पहुंचे तो यूकोस्लाविया के मार्शल ने उनका फटा कोट देखकर एक कोट गिफ्ट किया।
कर्पूरी भाई-भतीजावाद के सख्त खिलाफ थे। वो अपने परिवारवालों को भी सरकारी नौकरी देने की सिफारिश नहीं करते थे। एक बार उनके बहनोई उनके पास जब नौकरी की गुजारिश करने पहुंचे तो कर्पूरी ने अपनी जेब से 50 रुपए निकालकर उन्हें दिए और कहा कि इससे कंघा, कैंची और उस्तरा खरीद लो और अपना पुश्तैनी काम यानि नाई का काम शुरू कर दो। उनकी इस बात से बहनाई बहुत नाराज भी हुए थे।
एक बार कर्पूरी का बेटा काफी बीमार हो गया था। उस समय इंदिरा गांधी ने उन्हें अमेरिका जाकर इलाज कराने को कहा था, लेकिन कर्पूरी ने साफ मना कर दिया। वो सरकारी पैसे और चंदे के पैसे का पूरा हिसाब रखते थे और अपने जरूरत के लिए कभी सरकारी पैसे का इस्तेमाल नहीं किया। यहां तक कि उन्होंने पूरे जीवन में अपना घर तक नहीं बनवाया था।
एक बार बीजेपी एमएलए भोला सिंह ने कर्पूरी के पास 50 हजार ईंट भिजवा दी थी और कहा था कि इससे अपना टूटा फूटा घर बनवा लेना, लेकिन कर्पूरी ने उन ईंटों से गांव के स्कूल की मरम्मत करा दी थी। कर्पूरी ठाकुर के जीवन के ऐसे ही और भी कई हिस्से खूब मशहूर है और उन्हीं के नक्शे कदम नीतिश कुमार, लालू यादव, सुशील मोदी और रामविलास पासवान जैसे नेता चलते हैं।
नीतिश कुमार अक्सर उन्हीं का फार्मूला जैसे शराब बंदी, आरक्षण जैसे मुद्दों के जरिए जनता को लुभाने की कोशिश करते हैं। कर्पूरी ठाकुर के बारे में बिहार के स्कूलों में भी पढ़ाया जाता है। 17 फरवरी 1988 के दिन कर्पूरी ठाकुर ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। जिस समय वो दुनिया छोड़कर गए, विरासत में अपने बच्चों को देने के लिए एक इंच जमीन भी उनके पास मौजूद नहीं थी।
कर्पूरी ठाकुर जैसे महान जननायक नेता को हम शत शत नमन करते हैं। वाकई में यदि भारत के सारे नेता उनके जैसे हो जाए तो यकीनन इस देश से भ्रष्टाचार, गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। कर्पूरी ठाकुर के जीवन की कौन-सी बात आपको सबसे ज्यादा प्रेरित करती है, हमें कमेंट सेक्शन में जरूर बताएं।